क्या होता है चराग़ जलते रहने का अंज़ाम आखिर
ज़िन्दगी है भी तो चलते रहने का ही नाम आखिर
सफ़र खत्म हुआ, मुंतजिर रहे फिर भी, तो समझे
मुकम्मल होना नहीं है ज़ुस्तज़ू का मक़ाम आखिर
क्यूँ न करते रहे हम सहर का इन्तिज़ार यूँ ही
खत्म तो होती होगी धुंधली सी ये शाम आखिर
जब हम बज़्म से होकर गुजरे तो हमने ये जाना
सभी तो हैं इसी रंग-ओ-रस के गुलाम आखिर
इस आज़ार से गुजरते हुए इतना हैरान क्यूँ हो
यही होता है ऐसी रूहानियत का इनाम आखिर
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