टूट रहे हैं शाख से पत्ते, चल रही हवा पुरवाई है
न बोलूँ तो जुर्म है मेरा, गर बोलूँ तो रुस्वाई है
बड़े दिनों की याद फिर लौट के वापस आई है
सोच रहा..है ये सपना, हकीकत है, परछाई है ?
होने को है क़यामत जैसे ले रहा वक्त अंगड़ाई है
ऐसे मिलना भी क्या मिलना इससे अच्छी तो जुदाई है
हँसना रोना सभी मना है, कैसी किस्मत पाई है?
जिस रूह से भाग रहा वो मुझमे ही सिमट आयी है
भींग रही है धरती सारी......काली बदरी छाई है
बैठा हूँ महफ़िल में लेकिन सारी दुनिया की तन्हाई है