होठ सुर्ख थे जेठ की दोपहर की दीवार की तरह
अश्कों से बारिश भी जिसे भींगा नहीं पाया
चीख निकली थी पर गले तक अटकी
इन फैले हाथों को थामने कोई हाथ नहीं अाया
मैं खड़ा रहा देर तक इंतजार में किसी के
सब आये पर कोई पास नहीं आया
कभी अच्छी लगते थे जीवन के हर एक पल
और आज पूरा दिन रास नहीं आया
मुझे कोई भी शोर जगा नहीं पाया
इतना गहरा डूबा की कोई बचा नहीं पाया
हालाँकि उजाला हुआ था थोड़ी देर के लिए
पर ऐसा भी नहीं की रास्ता दिखा पाया
आज रिश्तों के सब मायने बदल गए,मेरे लिए
जिसके आने की उम्मीद न थी,वो आया
देखा था मैंने उसे शायद पहली बार,अनजान था वो
पर क्या उसने सच्चे रिश्ते का फर्ज नहीं निभाया?