भीड़ है ये कुछ ख्वाहिशों की
जिन्हें हमेशा पकड़ना चाहता हूँ मैं
देखना चाहता हूँ कि आखिर
क्या है इनमें, जो अक्सर मैं खींचा चला आता हूँ इनकी तरफ
कुछ तो बात होगी
कुछ न भी सही, एक बार मुलाकात तो होगी
भ्रम का टूटना भी जरूरी है
ख्वाहिशों का बोझ हल्का रखने के लिए
फिर ख्याल आता है
ख्याल आता है या ये भी मेरा वहम है
पता नहीं
खैर तो ऐसा है कि मैं सोचता हूँ कभी कभी
क्या हो अगर सारे सपने सच्चे हो जाये हमारे
तो क्या फिर भी ऐसी ही बेचैनी रहेगी तब भी
और कुछ पाने की, कुछ नए सपने
पता नहीं, शायद
ये शायद भी बड़ा अजीब शब्द है न
कभी भरोसा ही नहीं होने देता
भरोसा टूटने के लिए ही बना होता है, शायद
फिर शायद
क्या कर सकते हैं
कुछ चीजें हमारे वश की बाहर की चीजें होती हैं
कोई अधिकार नहीं इन पर
या होता हैं क्या, पता नहीं, शायद
एक चीज थी जिस पर कभी अधिकार था मेरा
ऐसा लगता था जैसे किसी का हक़ ही नहीं मेरे अलावा उस पर
पर ये भी वहम निकला, मेरे बाकी सारी ख्वाहिशों की तरह
जो मिल जाने के बाद वैसी नहीं होती जैसी कल्पना थी हमारी
कैसी होती हैं फिर
हमारी कल्पना से थोड़ी कम, और कम, थोड़ा कम
पता नहीं, शायद
एक नईं ख्वाहिश हैं मेरी
और मैं सोचता हूँ कि ये मेरी कल्पना से बढ़ कर होगी
होगी क्या?
पता नहीं, देखते हैं, शायद