Sunday 22 January 2017

जनतंत्र दिवस

कभी कभी टूटे हुए कांच की तरह सपने भी बिखर जाते हैं,
हम जो हैं वही रहते है और अचानक से हालात बदल जाते हैं|
तो क्या यह जरूरी है कि हर वक्त हालात का रोना रोया जाये,
ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ नए सपनों का बीज बोया जाये|
भुलाकर सारी खामियों को,नाकामियों को,परेशानियों को,
जिंदगी को जैसे डायरी कि किसी नए पेज पर लिखा जाये|
जो जिम्मेदार थे,कसूरवार थे तोड़ने के लिए सारे सपने हमारे;
अपनी सारी उन हरकतों से,नादानियों से सबक सीखा जाए|
ऐसा मुमकिन तो नहीं कि सारे सपने हकीकत में बदल जाएँ,
फासले मिट जाए सारे दरम्याँ और सपने ही हकीकत बन जाएँ
पर अच्छा लगता है अपने सपनो को हकीकत बनते देखकर
जैसे कुम्हार को अच्छा लगता है मिटटी को दीपक बनते देखकर
खुश होना कोई गुनाह तो नहीं,फिर सपने देखना भी गुनाह नहीं है
नए सपनो को जगह देना भी,जब पुराने सपनो के लिए पनाह नही है
हर नागरिक का सपना था जनतंत्र जो सच्चे अर्थों में उनका अपना हो
स्वतंत्रता,सुरक्षा,सुविधाएँ,सुशाशन सब हकीकत हों न कि कोई सपना हो
पर सब सपने एक एक कर टूटते चले गए,जनतंत्र कहीं ग़ुम हो गया
और इस पूरे जनतंत्र कि जगह भारतीय जनतंत्र दिवस ने ले लिया
एक ऐसा दिन जब झूठा विश्वास दिलाने का अभ्यास किया जाता है,और
सालभर की नाकामियों को तिरंगे के नीचे ढकने का प्रयास किया जाता है
और उसी तिरंगे के नीचे कुछ अनाथ,कुछ विधवाएँ.कुछ ऐसी महिलाएं
जिनकी इज्जत लूट ली गयी हैं,एकटक निहारते है जैसे ये सारा षड्यन्त्र
आँखों में सपने और दिल में सच्ची उम्मीद लेकर झूठे वादों पर तालिया
बजाते हुए होठों से बुदबुदाते हुए जैसे मांग रहे हों एक सच्चा जनतंत्र

Random#29

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