Wednesday 6 September 2017

और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ



एक चेहरे पर हजार चेहरे
चलते सड़कों पर
चौराहों पर
अख़बार में
हर जगह 
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ 

मुस्कराते चेहरे पर बयां करती आँखें
हर हादसा
हर चोट
हर निशान
सब कुछ
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ

भीड़ में नजर आता वो अकेला शख़्स
हर महफ़िल में
सभाओं में
गाड़ियों में
हर जगह 
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ

एक खुशहाल परिवार पर समझौते 
पति-पत्नी के बीच
पिता-पुत्र के बीच
भाई-भाई के बीच
एक दूसरे से
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ 

एक चमकता घर, आलीशान गाड़ियां 
पर वो अँधेरा कमरा
बदसलूकी
जुल्म
अमानवीयता 
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ

मासूमियत, सादगी, खिलखिलाहट
पर वो इरादे
नफरत
ख़ामोशी
खंजर
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ 

Friday 1 September 2017

"कविता और कविता"

डूबे हुए सृजन में अपने
सोचता हूँ फिर मन में मुड़कर
कविता और कविता की समानता पर



एक को मोड़ता है कवि अपनी भाषा से, भाव से

एक है मुड़ती समय के साथ खुद-ब-खुद
देती है गमगीन सोच कविता की हर कड़ीयाँ
सोच की सागर में लीन कविता हर घड़ीयाँ
कविता को पढ़ने से मिलती है सुधा प्यारी
लेकिन दूसरे के अन्तरहृदय के कपाट से निकलती है अश्रु सारी



कवि अपने कविता को बनाता है समय के वीभत्स नग्नता पर

सोचता हूँ फिर मन में मुड़कर कविता और कविता की समानता पर



एक प्रश्न पूछता हूँ अक्सर अपने से

जगा है क्या कोई कवि कभी सपने से?
जो तोड़-तोड़ है शब्दों को खंघारता
फिर चुन-चुन है उन्हें सवाँरता
और यह समाज भी अब हो गया है निर्मम कवि
देख-देख हर माप पर चुनना चाहते है सभी



अभी दुर्भाग्य है ऐसी कई कविता सी बालिकाओ के

है न कोई खास बात इन सैकड़ों कविताओं में
जो कोसती है भाग्य अपने समाज की हकीकत और मेरी कविताओं पर
सोचता हूँ फिर मन में मुड़कर कविता और कविता की समानता पर








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