Friday 27 October 2017

देवदास

(Due thanks to owner of the photograph)



ये आब, ये रौशनी, ये आइना, ये आफ़ताब
सब के सब जाजिब (attractive) हैं माना
पर सच नहीं, और सच सिर्फ इतना है कि
इन सबसे अलग एक और दुनिया है
जिनमें रहता है एक गुमसुदा इंसान

शायद है गर्दिशों में गिरफ्तार
या फिर गुलदस्तों का मोहताज़
किसी अजीज के इंतिजार में 
टकटकी लगाए देखता है बार बार 

नहीं, किसी कि गवाही की जुस्तजू नहीं उसे
न ही वो है गुलों के शौक में गमदीदा
फिर ये ख़ुमार किसका है
वो खामोश क्यों है, ये अस्मार(weakness) किसका है 

खलिश(pain) है आँखों में
पर होठों पे मुस्कान भी है 
आदिल (honest ) इतना कि कहता है
सड़क के उस पर उसका एक मकान भी है

खबर है कि कोई कातिल है उसका
हालाँकि वो मरा नहीं है अभी 
क़यामत और भी देखनी है उसे
शायद दिल भरा नहीं है अभी 

ख़त्म हो जाये सिलसिले सारे 
अगर कबूल करे वो गुनाह अपना 
क्या खता नहीं ये कि 
अब उसी का न रहा है उसी का सपना 

अब न रहा है कोई जहीर
आब-ए-आइना (mirror) दिखाने वाला 
है कोई तो बस
आब-ए-तल्ख़(alcohal) पिलाने वाला 

न उसे शिकायत कोई, न किसी के खिलाफ है
गरज बस इतनी कि गिर्दाब (whirlpool) है हर तरफ 
और उसका क़ल्ब (wisdom) जो कहता है 
चश्म-ओ-चिराग(loved one) यही कहीं आसपास है 

आशियाने के बाहर कोई गश(unconscious)
फरियाद करती उसकी गुल 
जश्न मनाता सारा अंजुमन 
बस एक यही सच है और बाकी सब झूठ है, सब इत्तेफाक है  

Wednesday 6 September 2017

और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ



एक चेहरे पर हजार चेहरे
चलते सड़कों पर
चौराहों पर
अख़बार में
हर जगह 
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ 

मुस्कराते चेहरे पर बयां करती आँखें
हर हादसा
हर चोट
हर निशान
सब कुछ
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ

भीड़ में नजर आता वो अकेला शख़्स
हर महफ़िल में
सभाओं में
गाड़ियों में
हर जगह 
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ

एक खुशहाल परिवार पर समझौते 
पति-पत्नी के बीच
पिता-पुत्र के बीच
भाई-भाई के बीच
एक दूसरे से
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ 

एक चमकता घर, आलीशान गाड़ियां 
पर वो अँधेरा कमरा
बदसलूकी
जुल्म
अमानवीयता 
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ

मासूमियत, सादगी, खिलखिलाहट
पर वो इरादे
नफरत
ख़ामोशी
खंजर
और मैं सोचता हूँ कि मैं सच देखता हूँ 

Friday 1 September 2017

"कविता और कविता"

डूबे हुए सृजन में अपने
सोचता हूँ फिर मन में मुड़कर
कविता और कविता की समानता पर



एक को मोड़ता है कवि अपनी भाषा से, भाव से

एक है मुड़ती समय के साथ खुद-ब-खुद
देती है गमगीन सोच कविता की हर कड़ीयाँ
सोच की सागर में लीन कविता हर घड़ीयाँ
कविता को पढ़ने से मिलती है सुधा प्यारी
लेकिन दूसरे के अन्तरहृदय के कपाट से निकलती है अश्रु सारी



कवि अपने कविता को बनाता है समय के वीभत्स नग्नता पर

सोचता हूँ फिर मन में मुड़कर कविता और कविता की समानता पर



एक प्रश्न पूछता हूँ अक्सर अपने से

जगा है क्या कोई कवि कभी सपने से?
जो तोड़-तोड़ है शब्दों को खंघारता
फिर चुन-चुन है उन्हें सवाँरता
और यह समाज भी अब हो गया है निर्मम कवि
देख-देख हर माप पर चुनना चाहते है सभी



अभी दुर्भाग्य है ऐसी कई कविता सी बालिकाओ के

है न कोई खास बात इन सैकड़ों कविताओं में
जो कोसती है भाग्य अपने समाज की हकीकत और मेरी कविताओं पर
सोचता हूँ फिर मन में मुड़कर कविता और कविता की समानता पर








Monday 7 August 2017

शायद

भीड़ है ये कुछ ख्वाहिशों की
जिन्हें हमेशा पकड़ना चाहता हूँ मैं
देखना चाहता हूँ कि आखिर
क्या है इनमें, जो अक्सर मैं खींचा चला आता हूँ इनकी तरफ 
कुछ तो बात होगी
कुछ न भी सही, एक बार मुलाकात तो होगी
भ्रम का टूटना भी जरूरी है
ख्वाहिशों का बोझ हल्का रखने के लिए 
फिर ख्याल आता है 
ख्याल आता है या ये भी मेरा वहम है
पता नहीं
खैर तो ऐसा है कि मैं सोचता हूँ कभी कभी
क्या हो अगर सारे सपने सच्चे हो जाये हमारे 
तो क्या फिर भी ऐसी ही बेचैनी रहेगी तब भी
और कुछ पाने की, कुछ नए सपने 
पता नहीं, शायद
ये शायद भी बड़ा अजीब शब्द है न
कभी भरोसा ही नहीं होने देता
भरोसा टूटने के लिए ही बना होता है, शायद
फिर शायद
क्या कर सकते हैं 
कुछ चीजें हमारे वश की बाहर की चीजें होती हैं
कोई अधिकार नहीं इन पर
या होता हैं क्या, पता नहीं, शायद 
एक चीज थी जिस पर कभी अधिकार था मेरा
ऐसा लगता था जैसे किसी का हक़ ही नहीं मेरे अलावा उस पर
पर ये भी वहम निकला, मेरे बाकी सारी ख्वाहिशों की तरह
जो मिल जाने के बाद वैसी नहीं होती जैसी कल्पना थी हमारी
कैसी होती हैं फिर 
हमारी कल्पना से थोड़ी कम, और कम, थोड़ा कम
पता नहीं, शायद
एक नईं ख्वाहिश हैं मेरी
और मैं सोचता हूँ कि ये मेरी कल्पना से बढ़ कर होगी
होगी क्या?
पता नहीं, देखते हैं, शायद 

Saturday 18 March 2017

ये बर्फ पिघलते क्यों हैं?
क्यों छोड़ देते हैं जिद अपनी 
थोड़ी सी गर्मी के आगे?

शायद परिवर्तन ही संसार का नियम है
या फिर सीखा ही नहीं इन्होंने 
बेवजह हठ करना और पैदा कर देना
दरार रिश्तों के बीच में

Sunday 12 March 2017

पता नहीं क्यों

पता नहीं क्यों पर जब कभी भी मैं  सोचता हूँ तुम्हे 
एक अजीब सी मुस्कान चली आती है चेहरे पे 
चाहा हैं बहुत बार, दूर रखूँ, तुम्हारे चेहरे,अपनी आँखों से
पर हर बार तोड़ा है इस वायदे को मैंने, पता नहीं क्यों 

पता नहीं क्यों, हर बात अच्छी लगती है मुझे तुम्हारी  
तुम्हारे सवालात, हमारे मुलाकात, सब अच्छे लगते हैं मुझे 
और चाहा हैं जब कभी मैंने कि न सोचूँ तुम्हारे बारे में 
बेचैनियों का एक सिलसिला चल पड़ा हैं साथ, पता नहीं क्यों 

पता नहीं क्यों, जब कभी भी चाहा हैं गुस्सा होना मैंने 
सोचा कि नाराज़ होकर चला जाऊँ दूर कही तुमसे 
और न आऊं लौटकर वापिस कभी फिर इस जगह 
नम आँखों ने रोका हैं मुझे हर बार, पता नहीं क्यों 

पता नहीं क्यों आज जब सब कुछ हैं मेरे पास
फिर भी क्यों, कुछ भी न होने का अहसास है जैसे
लगता है जैसे कुछ है ही नहीं, पता नहीं क्यों  



Thursday 23 February 2017

आरजूओं का फलसफां, मैं कैसे तुम्हें बता दूँ 
बरसों की ये चाहत, मैं कैसे तुझसे जता दूँ 
मासूमियत, वो सादगी, वो खिलखिलाहट हर बात पर
जो गूंजती हों हर पहर, मैं कैसे इन्हें भुला दूँ

बन गयी हो जो जरूरत हर वक्त, बेवक्त की 
ऐसी हैं कुछ सिलवटें, मैं किस तरह मिटा दूँ 
दर्द की जो दास्तान, सुपुर्दें खाक हो चुकी 
उन दास्तानों का निशान, मैं कैसे तुम्हें दिखा दूँ 

अश्कों का ये सिलसिला, जो चल रहा है दर-बदर 
हर किसी के सामने, मैं कैसे इन्हें चुरा लूँ
सिसकियों की अर्जियां, खामोशियों का ये सफर 
फैली हुई जो दूर तक, मैं किस तरह छुपा लूँ 

Sunday 19 February 2017

चाहा मैंने भी वही हैं जो तुमने
माँगा मैंने भी वही है जो तुमने 
ग़लतफ़हमियाँ रह गयी दरम्यां शायद 
मंजूर हो जिंदगी को कुछ नया शायद 

Sunday 22 January 2017

जनतंत्र दिवस

कभी कभी टूटे हुए कांच की तरह सपने भी बिखर जाते हैं,
हम जो हैं वही रहते है और अचानक से हालात बदल जाते हैं|
तो क्या यह जरूरी है कि हर वक्त हालात का रोना रोया जाये,
ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ नए सपनों का बीज बोया जाये|
भुलाकर सारी खामियों को,नाकामियों को,परेशानियों को,
जिंदगी को जैसे डायरी कि किसी नए पेज पर लिखा जाये|
जो जिम्मेदार थे,कसूरवार थे तोड़ने के लिए सारे सपने हमारे;
अपनी सारी उन हरकतों से,नादानियों से सबक सीखा जाए|
ऐसा मुमकिन तो नहीं कि सारे सपने हकीकत में बदल जाएँ,
फासले मिट जाए सारे दरम्याँ और सपने ही हकीकत बन जाएँ
पर अच्छा लगता है अपने सपनो को हकीकत बनते देखकर
जैसे कुम्हार को अच्छा लगता है मिटटी को दीपक बनते देखकर
खुश होना कोई गुनाह तो नहीं,फिर सपने देखना भी गुनाह नहीं है
नए सपनो को जगह देना भी,जब पुराने सपनो के लिए पनाह नही है
हर नागरिक का सपना था जनतंत्र जो सच्चे अर्थों में उनका अपना हो
स्वतंत्रता,सुरक्षा,सुविधाएँ,सुशाशन सब हकीकत हों न कि कोई सपना हो
पर सब सपने एक एक कर टूटते चले गए,जनतंत्र कहीं ग़ुम हो गया
और इस पूरे जनतंत्र कि जगह भारतीय जनतंत्र दिवस ने ले लिया
एक ऐसा दिन जब झूठा विश्वास दिलाने का अभ्यास किया जाता है,और
सालभर की नाकामियों को तिरंगे के नीचे ढकने का प्रयास किया जाता है
और उसी तिरंगे के नीचे कुछ अनाथ,कुछ विधवाएँ.कुछ ऐसी महिलाएं
जिनकी इज्जत लूट ली गयी हैं,एकटक निहारते है जैसे ये सारा षड्यन्त्र
आँखों में सपने और दिल में सच्ची उम्मीद लेकर झूठे वादों पर तालिया
बजाते हुए होठों से बुदबुदाते हुए जैसे मांग रहे हों एक सच्चा जनतंत्र

Random#29

 स्याह रात को रोशन करता हुआ जुगनू कोई  हो बारिश की बुँदे या हिना की खुशबू कोई  मशरूफ़ हैं सभी ज़िन्दगी के सफर में ऐसे  कि होता नहीं अब किसी से...