Sunday 12 March 2017

पता नहीं क्यों

पता नहीं क्यों पर जब कभी भी मैं  सोचता हूँ तुम्हे 
एक अजीब सी मुस्कान चली आती है चेहरे पे 
चाहा हैं बहुत बार, दूर रखूँ, तुम्हारे चेहरे,अपनी आँखों से
पर हर बार तोड़ा है इस वायदे को मैंने, पता नहीं क्यों 

पता नहीं क्यों, हर बात अच्छी लगती है मुझे तुम्हारी  
तुम्हारे सवालात, हमारे मुलाकात, सब अच्छे लगते हैं मुझे 
और चाहा हैं जब कभी मैंने कि न सोचूँ तुम्हारे बारे में 
बेचैनियों का एक सिलसिला चल पड़ा हैं साथ, पता नहीं क्यों 

पता नहीं क्यों, जब कभी भी चाहा हैं गुस्सा होना मैंने 
सोचा कि नाराज़ होकर चला जाऊँ दूर कही तुमसे 
और न आऊं लौटकर वापिस कभी फिर इस जगह 
नम आँखों ने रोका हैं मुझे हर बार, पता नहीं क्यों 

पता नहीं क्यों आज जब सब कुछ हैं मेरे पास
फिर भी क्यों, कुछ भी न होने का अहसास है जैसे
लगता है जैसे कुछ है ही नहीं, पता नहीं क्यों  



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