Monday 22 September 2014

शाम

ढलते सड़क की आड़   लिए 

जब भानू भू को छोड़ चला

लिया अंधकार ने डेरा अपना

और धरा पर शाम हुई


 ऐसा भी अब हो जाता है

मन  चंचल सा हो जाता है

वादो को कर तितर बितर

एक मूक निमंत्रण छलता जाता है


जाना है बस जाना है

थककर  मैंने यह जाना है

थककर  भी मैंने जाना आज

सबसे मेरी पहचान हुई


इस आलम को कोई तग़ाफ़ुल करता  कैसे

मदमाती होठों को  प्याले  मिले हो जैसे

 घोलती  है अमृत  रस यह छिटकती चाँदनी

अब सबकुछ उसके नाम हुई


लिया अंधकार ने डेरा अपना

और धरा पर शाम हुई

सवाल


क्या हो जब अपना कोई
राहे सफर में छोड़ जाये
लड़खड़ाते कदम से मैं चलूँ
और सामने से मंजिल आ जाये



बुझी हुई चिराग की लौं
एक बार फिर से जल जाये
वो जज्बात जो अर्से से छुपे थे
आंसू बन के मचल जाये



दिल के गुलशन में एक बुलबुल
फिर से कोई चहक जाये
सुना पड़ा ये आशियाँ
एक बार फिर से महक जाये



राह तकती आँखों को
राहत सी आये
और उनके पैरों की
हल्की सी आहट सी आये



सच कहता हूँ आज मैं
पागल सा हो जाऊंगा
दिल कहता है अरसे बाद
आज चैन से सो पाउँगा

१४ सितम्बर

फिर १४ सितम्बर आने वाला है
ओह.......ये मैंने क्या कह दिया?
१४ फ़रवरी होती तो कोई बात थी
१४ सितम्बर भी भला याद रखने की चीज है क्या?
पर कुछ लोगो के लिए ये तारीखें याद रखनी जरूरी होती हैं
जरूरी क्या होती हैं यों कहें की मजबूरी होती है

यह जरिया होता है पहुँचने का,जनता तक नहीं,कुर्सी तक
क्या... सत्ता?हाँ हाँ ठीक समझे आप,जी हाँ उसी तक
आसान नहीं होता इसे पाना,लेनी पड़ती है लोगो की जानें
घर जलाने होते हैं साम्प्रदायिकता की आग में आप मानें या न मानें

उस दिन फिर मंच सजेगा और मैं सुनने को विवश रहूँगा
हिंदी को कुछ दूँ न दूँ,दुकानदारों को जरूर कुछ दूँगा

नेताजी मंच से भाषण शुरू करेंगे पर अपनी फितरत नहीं बदल पाएंगे
हम वहाँ खड़े सोचते रहेंगे की नेताजी अब संभल जायेंगे-अब संभल जायेंगे
पर नहीं,पूरा का पूरा भाषण अंग्रेजी में होगा हर बार की तरह
और यह अंग्रेजी हिंदी को फिर ढक लेगा किसी दीवार की तरह

मुझे सब पता है फिर भी मैं जाऊंगा
आँखों में चमक और दिल में उम्मीद लिए हुए
भूलकर सारे बीते १४ सितम्बर
और मिलें जख्मों को सिए हुए

की शायद यही वह दिन होगा जब कुछ बोलने
के लिए मुझे भी बुलाया जायेगा
और बिना किसी हिचकिचाहट के इन बड़े लोगो के मंच से
रेस्पेक्टेड की जगह पहली बार आदरणीय बोला जायेगा

आज फिर

आज फिर एक बेहयाई ने खींच लायी है
कहने को मिलन हैं,फिर भी जुदाई है
ये राहे सफर ने हमको कहाँ ला खड़ा किया
देखो न मिलने की ये कैसी रूत आई है

दिल के अरमान टूट न जाये भला
तुम उधर खफा हो और इधर रूसवाई है
जरा गौर कर इस ज़माने की नजर को
हर आँखों ने एक नयी सुरूर पायी है
हो मुव्वकल उस बदरी पर जो दिलों पे छायी है
आज फिर एक बेहयाई ने खींच लायी है

गंगा

अहो धन्य माता
पुण्य सलिल गंगे
उत्तर तू धरा पर स्वर्ग छोड़ जब से आई
हिमालय की गोद से निकलकर हिमालय की बेटी कहलायी

इस भू धरा पर तू निर्मल है तबसे
भागीरथी की गंगा आई है जबसे
ब्रम्हा से विलग होकर शंकर जटा समायी
भागीरथी के पुरखो को तारने तू आई
अहो धन्य माता पुण्य सलिल गंगे

हे मन्दाकिनी, पापों से मुक्त करने वाली
शत नमन है तुम्हारा मातेश्वरी हमारी
तभी तो नाम है फिर देवनदी तुम्हारी
रहोगी तुम माता कष्टो को हरने वाली
अहो धन्य माता पुण्य सलिल गंगे

Tuesday 2 September 2014

लावारिश बच्चे



चलते  हुए सड़क के साथ साथ

देखा एक दृश्य कोताहल भरा

सड़क के उस पार  फुटपाथ पर

बच्चों को लुढ़कते हुए

थे खास न,ना ही उनकी पहचान कोई

बस यूँ हीं शरणार्थी की तरह पड़े हुए


मैंने ठिठक कर देखा एक पल के लिए

फिर रुक गया देखकर उस विह्वल दृश्य को

सोचने लगा फिर एक बार

बुनते है ऐसे हीं उनके भाग्य क्यों?

विस्मत हो रहा था मैं यह देखते हुए

सड़क के उस पार  फुटपाथ पर देखकर

बच्चों को लुढ़कते हुए


अंबर को पिता मानकर उसकी छत्र-छाया में

धरती को माँ समझ उसकी गोद में

वो सो गए थे अपनी कलूट काया लिए हुए

रोटी के एक टुकड़े की आशा लिए हुए

दर्द से मैं ऊबने लगा यह सोचते हुए

सड़क के उस पार  फुटपाथ पर देखा मैंने

बच्चो को लुढ़कते हुए


कैसे कटती है जिंदगी इन लावरिसो की

सामने सजती हैं महफिले उन वारिसों की

वो रंगीं-हसीं शाम मनाते हैं

और ये सड़क पर गिरे हुए चने खाते हैं


ये ग़मों को पीते हुए जीते हैं

सो जाते हैं फिर,एक जूठी पतल भी नसीब नहीं होती

देखते हैं ये लोगों को कातर नैनों से

जो रोजमर्रा की जिंदगी की लत लगाये हुए

चले जा रहे हैं इन्हे कुचलते हुए

सड़क के उस पार  फुटपाथ पर  देखा मैंने

बच्चों को लुढ़कते हुए

बूढी आँखें

दो बूढी आँखें चौराहे पर किसी को ढूढ़ती हैं चंचलता से

इस  भीड़ में उम्मीद कर मिल जाये कोई अपना सा

आते जाते राहगीरों से पहचान हो

या फिर कोई आवाज़ सुनाई दे अपना सा

भरी जवानी था शामिल इस गर्दिश में

हर शख्श अपना था हर राह अपना था

बेचैन होता बस इसी व्याकुलता से

दो बूढी आँखें चौराहे पर किसी को ढूढ़ती हैं चंचलता से

अभी कुछ ही दिन तो हुए बेटी भी अपनी थी बेटा भी अपना था

कालीन बिछे घर और रंग बिरंगी दुनिया, हर शाम अपना था

सोचता रहता सुबहो शाम बड़ी गंभीरता से

दो बूढी आँखें चौराहे पर किसी को ढूढ़ती हैं चंचलता से

खुद को रोकता क्यों है?

मुझसे न हो पायेगा ऐसा तू सोचता क्यों है?

अगर है तुझमे काबिलियत तो खुद को रोकता क्यों है?

गिरते वहीं हैं जो चलने का हौसला रखते हैं

चलते वहीं हैं जो जीतने का फैसला करते हैं

गिरने का मतलब तो हारना नहीं होता

जीतने के लिए चलना होता है बस रुकना नहीं होता

तू उठ चल शुरुआत तो कर

हार से ही सही एक बार मुलाकात तो कर

हारने के बाद तुझे जीत की तलाश होगी

हर घडी बस तुझे जीत की ही प्यास  होगी

फिर तू खुद को आत्मविश्वास से लबरेज पायेगा

तू काँटों भरा रास्ता नहीं फूलों का सेज पायेगा

हर दिन हर घडी हर रात फिर तेरी होगी

इस चाँद ने ये चाँदनी तुझपे बिखेरी होगी

जिंदगी तेरी है ये तू दूसरों को देखता क्यों है?

अगर है तुझमे काबिलियत तो खुद को रोकता क्यों है?

हाले दिल

आज कही हाले दिल का पता न चल जाए

सर्द  हो रहा हूँ मैं सर्दियों सा सिमटकर

सोचता हूँ आँख अपनी क्या ठहर पायेगी

या फूलों सा खिलकर कोई गुल खिलायेगी

गुफ्तगूँ में कही मेरी जाँ निकल न जाए

आज कही हाले दिल का पता न चल जाए

दिल थामता हूँ फिर एक तरकीब से

फिर डरता हूँ लाचारी व अपने नसीब से

डूब न जाए कश्ती किनारे पर ही कही

या सफर के साथ ही मंजिल भी न मिल जाए

आज कही हाले दिल का पता न चल जाए

बीते हुए कल

मुड़कर देखा और मुस्कराया भी था

भूलकर ही सही एक दीया जलाया भी था

मुझे छोड़कर गम में वो हँसते रहे हर पल

ना याद रखना बीते हुए कल

यादों के झरोखों से आये जो निकलकर

थक जाते हैं हम भी कुछ दूर चलकर

ख़ूबसूरत सही पर हैं शीशे का महल

ना याद रखना बीते हुए कल

कौन याद रखता है उस हसीं ज़माने को

छोड़ जाते है कुछ गम बस रुलाने को

कही बेवफा तो नहीं है समय की पहल

ना याद रखना बीते हुए कल

एक जमाना ऐसा भी था


एक जमाना ऐसा भी था

जब दिलों के रु-ब-रु

इम्तिहाँ लवों का था

आँखों का संगम भी था

एक जमाना ऐसा भी था


दूर होकर जीना मुनासिब नहीं

जैसे जीता है भौंरा फूलों से लिपटकर

उनको आदत कुछ ऐसा ही था

एक जमाना ऐसा भी था


हम जाते दूर तलक जब भी

वो नहाये अश्के समंदर में भी

ये नाता दिलों के सम्बन्धो का था

एक जमाना ऐसा भी था

Random#29

 स्याह रात को रोशन करता हुआ जुगनू कोई  हो बारिश की बुँदे या हिना की खुशबू कोई  मशरूफ़ हैं सभी ज़िन्दगी के सफर में ऐसे  कि होता नहीं अब किसी से...