Thursday 4 December 2014

यादें

यादें उनकी अपनी तन्हाई
अश्क आँखों की दिलो की गहराई
अंजुमन व शोहरत की मिली बेवफाई
यादें उनकी अपनी तन्हाई

दर्द हरा होता है
जब कभी पास आती है यादें उनकी
दिल का सौदा हुआ जाता है
शेष बच जाती है यांदे उनकी

वो आये न आये यादें आ ही जाती हैं
चाहता हूँ मुस्कराना पर आँखें भर आती हैं
यादें उनकी अपनी तन्हाई
अश्क आँखों की दिलो की गहराई

Saturday 15 November 2014

दीवाली

दीवाली दीप के दिव्यार्थ का त्योंहार है

अब तो शक होता है मुझे

देखकर घोर कालिमा राजू के घर में और उसकी आँखों में वेदना

दुःख होता है मुझे

राजू मेरे गावँ का ही एक भोला भाला लड़का है

जिसे दीवाली भी बाक़ी दिनों की तरह ही नजर आती है

ऐसा नहीं की उसे आतिशबाजी का शौक नहीं

और उसे उजियारे की यह स्वर्ण लालिमा रास नहीं आती है

पर वह बेबस है मजबूर है लाचार है

उम्र में छोटा है मगर सबसे समझदार है

आज दीवाली है पर उसके घर में आज भी अँधेरा है

कोई शोर शराबा नहीं लगता है जैसे भूतों का डेरा है

दीवाली उजालों का त्योंहार है पर सबके लिए नहीं

कैसी दीवाली और कहाँ का त्योंहार जब आपके पास पटाखे नहीं और दियें नहीं

देखकर आँशु अपनी माँ की आँखों में

वह कोशिश करता है हसने की हँसाने की बातों ही बातों में

पकड़कर माँ की उंगलियां अपने नन्हे हाथों में

वह कहता है एक गंभीर बात इन चमकती रातों में

माँ तुम रोती क्यों हो दीवाली कल है मैंने पूछा था पंडित जी से

मैं कसम खाता हूँ मैं झूठ नहीं बोल रहा तुम पूछ लो बड़ी दीदी से

फिर वह अपने नन्हे हाथों से आपने माँ के आँशू पोछता है

दर्द में जगता है रात भर और अगले दिन दीवाली मनाने का एक नया तरीका खोजता है

सुबह होते ही वह दौड़ता है आलिशान मकानों के नीचे

कुछ गिरे हुए पटाखे मिल जाये शायद कुछ ऐसे ही सपनो को सींचे

वह खुश है कुछ पटाखे पाकर साथ मे कुछ अधजली मोमबत्तियां भी

अगले दिन वह भी मनाता है दीवाली रोशन होती है उसकी कुटियां भी

पर दीवाली तो कल थी यह उसे भी पता है मुझे भी पता है

दीवाली कल न मन सका वह पर इसमें उसकी क्या खता है

दीवाली तो तब है जब दिल से दिलों के दियें जल जाये

बुझ जाएँ अमीरी गरीबी के फासलों के दियें कमल प्यार के खिल जाएँ

बचपन

मैं खुश नहीं हूँ कि मैं बीस साल का हो जाऊंगा इस बार
काश कि इस जन्मदिन पर कोई मुझे मेरा बचपन देता
काश कि मैं फिर रोता ,मचल जाता
और माँ काम छोड़कर मुझे मनाने आती
मैं फिर करता नटखट सरारते
और दीदी मुझे पापा के डांट से बचाने आती
जीवन कितना सरल होता अगर
मैं हर बात पर रो दिया करता
फिर खिलखिलाता जोर जोर से
हर गम को एक पल में धो दिया करता
देकर थपकियाँ माँ मुझे सुलाती
नानी मुझे प्यारी कहानियां सुनाती
मंजिल क्या है? मालूम न होता
पर पाना है उसे इतना यकीं होता
कि डर लगता हर वक्त मुझे अपनी खामियों से
हिम्मत नहीं हारता मैं कभी अपनी नाकामियों से


भीड़ इतनी थी यहाँ कि पैर रखने की जगह नही थी
और अकेला इतना कि बस मैं ही था और कोई नहीं था
आज मुड़कर देखा तो सबकुछ सुना नजर आ रहा था
पर उस शून्य में मुझे अपना बचपन नजर आ रहा था
बचपन मस्तियों से भरा एक जाम होता है
पर चलना हमें वक्त के साथ होता है
इस जाम को पी नहीं सकता मैं अहसास तो कर सकता हूँ
सपने में ही सही आज खुद का दीदार तो कर सकता हूँ

भरोसा

हर शख्स मुझे रास्ता दिखाता नजर आता है
हर शख्स मुझे पागल बनाता नजर आता है
इन सलाहों के पोटली से परेशान हो गया हूँ मैं
और वे कहते हैं की बदनाम हो गया हूँ मैं

बदनाम होना इतना आसान नहीं
इससे पहले नाम तो होना चाहिए
कब समझदार हो जाऊंगा मैं ऐसा पूछते हैं लोग
अगर ऐसा है तो आज मुझे नादाँ ही होना चाहिए
ये नादानियाँ तुम्हारी शैतानियों से अच्छी हैं शायद
मेरी कहानियाँ तुम्हारी हकीकत से ज्यादा सच्ची हैं शायद
नहीं बनना समझदार मुझे मैं नादाँ ही सही हूँ
मैं अपनी बचकानी आदतों का गुलाम ही सही हूँ
बदल दूँ खुद को ऐसा कोई शौक नहीं है मुझे
तुम्हारी चिल्लाहट तुम्हारी चेतावनी का खौफ नहीं है मुझे
मुझे जीना है मगर अपनी शर्त पर
भरोसा है मुझे खुद पर और अपनी फितरत पर

Monday 22 September 2014

शाम

ढलते सड़क की आड़   लिए 

जब भानू भू को छोड़ चला

लिया अंधकार ने डेरा अपना

और धरा पर शाम हुई


 ऐसा भी अब हो जाता है

मन  चंचल सा हो जाता है

वादो को कर तितर बितर

एक मूक निमंत्रण छलता जाता है


जाना है बस जाना है

थककर  मैंने यह जाना है

थककर  भी मैंने जाना आज

सबसे मेरी पहचान हुई


इस आलम को कोई तग़ाफ़ुल करता  कैसे

मदमाती होठों को  प्याले  मिले हो जैसे

 घोलती  है अमृत  रस यह छिटकती चाँदनी

अब सबकुछ उसके नाम हुई


लिया अंधकार ने डेरा अपना

और धरा पर शाम हुई

सवाल


क्या हो जब अपना कोई
राहे सफर में छोड़ जाये
लड़खड़ाते कदम से मैं चलूँ
और सामने से मंजिल आ जाये



बुझी हुई चिराग की लौं
एक बार फिर से जल जाये
वो जज्बात जो अर्से से छुपे थे
आंसू बन के मचल जाये



दिल के गुलशन में एक बुलबुल
फिर से कोई चहक जाये
सुना पड़ा ये आशियाँ
एक बार फिर से महक जाये



राह तकती आँखों को
राहत सी आये
और उनके पैरों की
हल्की सी आहट सी आये



सच कहता हूँ आज मैं
पागल सा हो जाऊंगा
दिल कहता है अरसे बाद
आज चैन से सो पाउँगा

१४ सितम्बर

फिर १४ सितम्बर आने वाला है
ओह.......ये मैंने क्या कह दिया?
१४ फ़रवरी होती तो कोई बात थी
१४ सितम्बर भी भला याद रखने की चीज है क्या?
पर कुछ लोगो के लिए ये तारीखें याद रखनी जरूरी होती हैं
जरूरी क्या होती हैं यों कहें की मजबूरी होती है

यह जरिया होता है पहुँचने का,जनता तक नहीं,कुर्सी तक
क्या... सत्ता?हाँ हाँ ठीक समझे आप,जी हाँ उसी तक
आसान नहीं होता इसे पाना,लेनी पड़ती है लोगो की जानें
घर जलाने होते हैं साम्प्रदायिकता की आग में आप मानें या न मानें

उस दिन फिर मंच सजेगा और मैं सुनने को विवश रहूँगा
हिंदी को कुछ दूँ न दूँ,दुकानदारों को जरूर कुछ दूँगा

नेताजी मंच से भाषण शुरू करेंगे पर अपनी फितरत नहीं बदल पाएंगे
हम वहाँ खड़े सोचते रहेंगे की नेताजी अब संभल जायेंगे-अब संभल जायेंगे
पर नहीं,पूरा का पूरा भाषण अंग्रेजी में होगा हर बार की तरह
और यह अंग्रेजी हिंदी को फिर ढक लेगा किसी दीवार की तरह

मुझे सब पता है फिर भी मैं जाऊंगा
आँखों में चमक और दिल में उम्मीद लिए हुए
भूलकर सारे बीते १४ सितम्बर
और मिलें जख्मों को सिए हुए

की शायद यही वह दिन होगा जब कुछ बोलने
के लिए मुझे भी बुलाया जायेगा
और बिना किसी हिचकिचाहट के इन बड़े लोगो के मंच से
रेस्पेक्टेड की जगह पहली बार आदरणीय बोला जायेगा

आज फिर

आज फिर एक बेहयाई ने खींच लायी है
कहने को मिलन हैं,फिर भी जुदाई है
ये राहे सफर ने हमको कहाँ ला खड़ा किया
देखो न मिलने की ये कैसी रूत आई है

दिल के अरमान टूट न जाये भला
तुम उधर खफा हो और इधर रूसवाई है
जरा गौर कर इस ज़माने की नजर को
हर आँखों ने एक नयी सुरूर पायी है
हो मुव्वकल उस बदरी पर जो दिलों पे छायी है
आज फिर एक बेहयाई ने खींच लायी है

गंगा

अहो धन्य माता
पुण्य सलिल गंगे
उत्तर तू धरा पर स्वर्ग छोड़ जब से आई
हिमालय की गोद से निकलकर हिमालय की बेटी कहलायी

इस भू धरा पर तू निर्मल है तबसे
भागीरथी की गंगा आई है जबसे
ब्रम्हा से विलग होकर शंकर जटा समायी
भागीरथी के पुरखो को तारने तू आई
अहो धन्य माता पुण्य सलिल गंगे

हे मन्दाकिनी, पापों से मुक्त करने वाली
शत नमन है तुम्हारा मातेश्वरी हमारी
तभी तो नाम है फिर देवनदी तुम्हारी
रहोगी तुम माता कष्टो को हरने वाली
अहो धन्य माता पुण्य सलिल गंगे

Tuesday 2 September 2014

लावारिश बच्चे



चलते  हुए सड़क के साथ साथ

देखा एक दृश्य कोताहल भरा

सड़क के उस पार  फुटपाथ पर

बच्चों को लुढ़कते हुए

थे खास न,ना ही उनकी पहचान कोई

बस यूँ हीं शरणार्थी की तरह पड़े हुए


मैंने ठिठक कर देखा एक पल के लिए

फिर रुक गया देखकर उस विह्वल दृश्य को

सोचने लगा फिर एक बार

बुनते है ऐसे हीं उनके भाग्य क्यों?

विस्मत हो रहा था मैं यह देखते हुए

सड़क के उस पार  फुटपाथ पर देखकर

बच्चों को लुढ़कते हुए


अंबर को पिता मानकर उसकी छत्र-छाया में

धरती को माँ समझ उसकी गोद में

वो सो गए थे अपनी कलूट काया लिए हुए

रोटी के एक टुकड़े की आशा लिए हुए

दर्द से मैं ऊबने लगा यह सोचते हुए

सड़क के उस पार  फुटपाथ पर देखा मैंने

बच्चो को लुढ़कते हुए


कैसे कटती है जिंदगी इन लावरिसो की

सामने सजती हैं महफिले उन वारिसों की

वो रंगीं-हसीं शाम मनाते हैं

और ये सड़क पर गिरे हुए चने खाते हैं


ये ग़मों को पीते हुए जीते हैं

सो जाते हैं फिर,एक जूठी पतल भी नसीब नहीं होती

देखते हैं ये लोगों को कातर नैनों से

जो रोजमर्रा की जिंदगी की लत लगाये हुए

चले जा रहे हैं इन्हे कुचलते हुए

सड़क के उस पार  फुटपाथ पर  देखा मैंने

बच्चों को लुढ़कते हुए

बूढी आँखें

दो बूढी आँखें चौराहे पर किसी को ढूढ़ती हैं चंचलता से

इस  भीड़ में उम्मीद कर मिल जाये कोई अपना सा

आते जाते राहगीरों से पहचान हो

या फिर कोई आवाज़ सुनाई दे अपना सा

भरी जवानी था शामिल इस गर्दिश में

हर शख्श अपना था हर राह अपना था

बेचैन होता बस इसी व्याकुलता से

दो बूढी आँखें चौराहे पर किसी को ढूढ़ती हैं चंचलता से

अभी कुछ ही दिन तो हुए बेटी भी अपनी थी बेटा भी अपना था

कालीन बिछे घर और रंग बिरंगी दुनिया, हर शाम अपना था

सोचता रहता सुबहो शाम बड़ी गंभीरता से

दो बूढी आँखें चौराहे पर किसी को ढूढ़ती हैं चंचलता से

खुद को रोकता क्यों है?

मुझसे न हो पायेगा ऐसा तू सोचता क्यों है?

अगर है तुझमे काबिलियत तो खुद को रोकता क्यों है?

गिरते वहीं हैं जो चलने का हौसला रखते हैं

चलते वहीं हैं जो जीतने का फैसला करते हैं

गिरने का मतलब तो हारना नहीं होता

जीतने के लिए चलना होता है बस रुकना नहीं होता

तू उठ चल शुरुआत तो कर

हार से ही सही एक बार मुलाकात तो कर

हारने के बाद तुझे जीत की तलाश होगी

हर घडी बस तुझे जीत की ही प्यास  होगी

फिर तू खुद को आत्मविश्वास से लबरेज पायेगा

तू काँटों भरा रास्ता नहीं फूलों का सेज पायेगा

हर दिन हर घडी हर रात फिर तेरी होगी

इस चाँद ने ये चाँदनी तुझपे बिखेरी होगी

जिंदगी तेरी है ये तू दूसरों को देखता क्यों है?

अगर है तुझमे काबिलियत तो खुद को रोकता क्यों है?

हाले दिल

आज कही हाले दिल का पता न चल जाए

सर्द  हो रहा हूँ मैं सर्दियों सा सिमटकर

सोचता हूँ आँख अपनी क्या ठहर पायेगी

या फूलों सा खिलकर कोई गुल खिलायेगी

गुफ्तगूँ में कही मेरी जाँ निकल न जाए

आज कही हाले दिल का पता न चल जाए

दिल थामता हूँ फिर एक तरकीब से

फिर डरता हूँ लाचारी व अपने नसीब से

डूब न जाए कश्ती किनारे पर ही कही

या सफर के साथ ही मंजिल भी न मिल जाए

आज कही हाले दिल का पता न चल जाए

बीते हुए कल

मुड़कर देखा और मुस्कराया भी था

भूलकर ही सही एक दीया जलाया भी था

मुझे छोड़कर गम में वो हँसते रहे हर पल

ना याद रखना बीते हुए कल

यादों के झरोखों से आये जो निकलकर

थक जाते हैं हम भी कुछ दूर चलकर

ख़ूबसूरत सही पर हैं शीशे का महल

ना याद रखना बीते हुए कल

कौन याद रखता है उस हसीं ज़माने को

छोड़ जाते है कुछ गम बस रुलाने को

कही बेवफा तो नहीं है समय की पहल

ना याद रखना बीते हुए कल

एक जमाना ऐसा भी था


एक जमाना ऐसा भी था

जब दिलों के रु-ब-रु

इम्तिहाँ लवों का था

आँखों का संगम भी था

एक जमाना ऐसा भी था


दूर होकर जीना मुनासिब नहीं

जैसे जीता है भौंरा फूलों से लिपटकर

उनको आदत कुछ ऐसा ही था

एक जमाना ऐसा भी था


हम जाते दूर तलक जब भी

वो नहाये अश्के समंदर में भी

ये नाता दिलों के सम्बन्धो का था

एक जमाना ऐसा भी था

Sunday 24 August 2014

विश्वाश


खुश हूँ कि मुझे कोई जानता नहीं  है

खुद से भी ज्यादा मुझे मानता नहीं है

दुःख इस बात का भी नहीं कि मेरी उपलब्धियाँ नहीं हैं

न ही इस बात का कि मेरी जिंदगी में मस्तियाँ नहीं हैं

खुश हूँ की लोग आजकल मेरा नाम तो लेते हैं

मेरी तरह न बनाने का पैगाम तो देते हैं

इस साँझ की चादर ने मेरे ग़मों को ढक लिया है

भोर तो होनी ही है इस बात का इशारा भी  किया है

खुद पे एक दिन फक्र होगा इस बात का विश्वास भी है

माफ़ कर देंगे मुझे लोग ऐसी एक आस भी है

Saturday 23 August 2014

वो बेवफा नहीं

वो मुझसे कुछ खफा खफा है

पर ऐसा नहीं कि वो बेवफा है

उसका मुझे वापिस मुड़के देखना इस बात का सबूत है

उसके दिल में आज भी मेरा वजूद है

उसके जाने के बाद रिश्ता और भी गहरा हो गया है

दिल मेरी भी नहीं सुनता शायद ये बहरा हो गया है

ये दिल के रिश्ते भी बड़े अजीब होते हैं

जो इसे कायम रख पाते है वो बड़े खुशनसीब होते हैं

मै ऐसा न बन सका बड़ा परेशान सा हूँ 

लेकिन वो तो कहती थी मै बड़ा नादाँ सा हूँ 

मै क्या हूँ  ये बताने के लिए आज वो नहीं है

इसलिए मै फैसले नहीं ले पाता कि क्या गलत है और क्या सही है

Random#29

 स्याह रात को रोशन करता हुआ जुगनू कोई  हो बारिश की बुँदे या हिना की खुशबू कोई  मशरूफ़ हैं सभी ज़िन्दगी के सफर में ऐसे  कि होता नहीं अब किसी से...