Saturday 15 November 2014

दीवाली

दीवाली दीप के दिव्यार्थ का त्योंहार है

अब तो शक होता है मुझे

देखकर घोर कालिमा राजू के घर में और उसकी आँखों में वेदना

दुःख होता है मुझे

राजू मेरे गावँ का ही एक भोला भाला लड़का है

जिसे दीवाली भी बाक़ी दिनों की तरह ही नजर आती है

ऐसा नहीं की उसे आतिशबाजी का शौक नहीं

और उसे उजियारे की यह स्वर्ण लालिमा रास नहीं आती है

पर वह बेबस है मजबूर है लाचार है

उम्र में छोटा है मगर सबसे समझदार है

आज दीवाली है पर उसके घर में आज भी अँधेरा है

कोई शोर शराबा नहीं लगता है जैसे भूतों का डेरा है

दीवाली उजालों का त्योंहार है पर सबके लिए नहीं

कैसी दीवाली और कहाँ का त्योंहार जब आपके पास पटाखे नहीं और दियें नहीं

देखकर आँशु अपनी माँ की आँखों में

वह कोशिश करता है हसने की हँसाने की बातों ही बातों में

पकड़कर माँ की उंगलियां अपने नन्हे हाथों में

वह कहता है एक गंभीर बात इन चमकती रातों में

माँ तुम रोती क्यों हो दीवाली कल है मैंने पूछा था पंडित जी से

मैं कसम खाता हूँ मैं झूठ नहीं बोल रहा तुम पूछ लो बड़ी दीदी से

फिर वह अपने नन्हे हाथों से आपने माँ के आँशू पोछता है

दर्द में जगता है रात भर और अगले दिन दीवाली मनाने का एक नया तरीका खोजता है

सुबह होते ही वह दौड़ता है आलिशान मकानों के नीचे

कुछ गिरे हुए पटाखे मिल जाये शायद कुछ ऐसे ही सपनो को सींचे

वह खुश है कुछ पटाखे पाकर साथ मे कुछ अधजली मोमबत्तियां भी

अगले दिन वह भी मनाता है दीवाली रोशन होती है उसकी कुटियां भी

पर दीवाली तो कल थी यह उसे भी पता है मुझे भी पता है

दीवाली कल न मन सका वह पर इसमें उसकी क्या खता है

दीवाली तो तब है जब दिल से दिलों के दियें जल जाये

बुझ जाएँ अमीरी गरीबी के फासलों के दियें कमल प्यार के खिल जाएँ

बचपन

मैं खुश नहीं हूँ कि मैं बीस साल का हो जाऊंगा इस बार
काश कि इस जन्मदिन पर कोई मुझे मेरा बचपन देता
काश कि मैं फिर रोता ,मचल जाता
और माँ काम छोड़कर मुझे मनाने आती
मैं फिर करता नटखट सरारते
और दीदी मुझे पापा के डांट से बचाने आती
जीवन कितना सरल होता अगर
मैं हर बात पर रो दिया करता
फिर खिलखिलाता जोर जोर से
हर गम को एक पल में धो दिया करता
देकर थपकियाँ माँ मुझे सुलाती
नानी मुझे प्यारी कहानियां सुनाती
मंजिल क्या है? मालूम न होता
पर पाना है उसे इतना यकीं होता
कि डर लगता हर वक्त मुझे अपनी खामियों से
हिम्मत नहीं हारता मैं कभी अपनी नाकामियों से


भीड़ इतनी थी यहाँ कि पैर रखने की जगह नही थी
और अकेला इतना कि बस मैं ही था और कोई नहीं था
आज मुड़कर देखा तो सबकुछ सुना नजर आ रहा था
पर उस शून्य में मुझे अपना बचपन नजर आ रहा था
बचपन मस्तियों से भरा एक जाम होता है
पर चलना हमें वक्त के साथ होता है
इस जाम को पी नहीं सकता मैं अहसास तो कर सकता हूँ
सपने में ही सही आज खुद का दीदार तो कर सकता हूँ

भरोसा

हर शख्स मुझे रास्ता दिखाता नजर आता है
हर शख्स मुझे पागल बनाता नजर आता है
इन सलाहों के पोटली से परेशान हो गया हूँ मैं
और वे कहते हैं की बदनाम हो गया हूँ मैं

बदनाम होना इतना आसान नहीं
इससे पहले नाम तो होना चाहिए
कब समझदार हो जाऊंगा मैं ऐसा पूछते हैं लोग
अगर ऐसा है तो आज मुझे नादाँ ही होना चाहिए
ये नादानियाँ तुम्हारी शैतानियों से अच्छी हैं शायद
मेरी कहानियाँ तुम्हारी हकीकत से ज्यादा सच्ची हैं शायद
नहीं बनना समझदार मुझे मैं नादाँ ही सही हूँ
मैं अपनी बचकानी आदतों का गुलाम ही सही हूँ
बदल दूँ खुद को ऐसा कोई शौक नहीं है मुझे
तुम्हारी चिल्लाहट तुम्हारी चेतावनी का खौफ नहीं है मुझे
मुझे जीना है मगर अपनी शर्त पर
भरोसा है मुझे खुद पर और अपनी फितरत पर

Random#29

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