टूट रहे हैं शाख से पत्ते, चल रही हवा पुरवाई है
न बोलूँ तो जुर्म है मेरा, गर बोलूँ तो रुस्वाई है
बड़े दिनों की याद फिर लौट के वापस आई है
सोच रहा..है ये सपना, हकीकत है, परछाई है ?
होने को है क़यामत जैसे ले रहा वक्त अंगड़ाई है
ऐसे मिलना भी क्या मिलना इससे अच्छी तो जुदाई है
हँसना रोना सभी मना है, कैसी किस्मत पाई है?
जिस रूह से भाग रहा वो मुझमे ही सिमट आयी है
भींग रही है धरती सारी......काली बदरी छाई है
बैठा हूँ महफ़िल में लेकिन सारी दुनिया की तन्हाई है
Wow!!! Glad I stumbled here!🌸
ReplyDeletePlease please keep writing, going to eagerly wait from now on
I can relate to these posts, they feel home!❤️