दिसंबर की रात जैसे-जैसे गहरी होती जाती है
शहर होता जाता है मौन, धुँध बढ़ती जाती है
मैं होता जाता हूँ गुम सोचते हुए कल के बारे में
अतीत की एक आवाज़ दीवारों से टकराती है
इस अँधेरे में भी सब कुछ दिखता है साफ-साफ
आँखों के सामने एक तस्वीर उभरती जाती है
यूँ तो सब बताते हैं क्या हैं खामियाँ और क्या ऐब
यह ज़िन्दगी ही है जो सच में आइना दिखाती है
भले हो बंद कमरे, बंद खिड़कियां, बंद सबकुछ
एक सड़क अब भी है जो सहर तक जाती है
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