Thursday 8 August 2019

खामोशियां


ये खामोशियां जो शहर के कोलाहल से ज्यादा डराती थी
कभी लम्बी रातों के सन्नाटे में तो कभी अकेले बंद कमरे में
रात को अचानक से यूँ उठकर बैठ जाना मुझे कुछ बतलाता था
या बाहर की तरह अंदर भी फैले इस सन्नाटें का आइना दिखाता था

मैंने जानने की कोशिश की थी क्या कभी...? पर जवाब नहीं मिला
शायद कुछ ऐसा ही हुआ होगा,कुछ सवालों के जवाब नहीं होते
हकीकत तो यह है कि बहुत सारे सवालों के जवाब नहीं है हमारे पास
कुछ चीजें हमने स्वीकार कर ली हैं और कुछ करवा दी गयी हैं

पर अब तो अच्छी लगने लगी हैं ये खामोशियाँ
रात को चुपके से उठकर पंखें बंद कर देता हूँ
नहीं जानता क्यों,शायद इस डर से कि रात का सन्नाटा कही भंग न हो जाये

जो कुछ भी हो पर इतना जरूर है अब जैसे जरूरत बन गयी हैं ये खामोशियाँ
नहीं रह पता उस जगह पर उस माहौल में जहाँ जंग है एक दूसरे को पराजित करने की
भले ही इसके लिए किसी मासूम को पैरों तले कुचलना पड़े
या फिर आपको अपना वास्तविक चेहरा हमेशा के लिए बदलना पड़े

अपनी सफलताओं असफलताओं का अवलोकन करना नहीं चाहता
वो चीज जो मेरे चेहरे पर मुस्कराहट लाती है मै वो करना चाहता हूँ
मै भागकर जल्दी से घर पहुंचना चाहता हूँ जहाँ सुकून के दो पल हैं मेरे पास

इस अजनबी शहर से बहुत दूर ले जाती हैं ये खामोशियाँ
और शायद यही जवाब है क्यों अच्छी लगने लगी हैं ये खामोशियाँ

 



1 comment:

  1. Ab to aur bhi khamosh rehne lagi hai ye khamoshiyan!

    this is a piece of heart! 🌸🙌

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