Sunday 25 September 2016

कल्पना


तुम हकीकत नहीं हो, पता है मुझे 
पर हर बार मैं तुमसे मिलता रहा हूँ 
तुम्हारी तस्वीर, मेरा तस्स्वुर 
बस यूँ ही कुछ ख्वाब बुनता रहा हूँ 

मैं खुद से अलग खो गया हूँ कहीं 
इस कदर हर बार तुमको ढूंढता रहा हूँ
लड़खड़ाना, गिरना, उठना और चलना 
जिंदगी, बहुत कुछ सीखता रहा हूँ 

कभी खुद जान नहीं पाया तुम्हे सलीके से
हालाँकि कई दफ़ा वही से गुजरता रहा हूँ 
एक हुनर है महफूज़ वर्षो से 
थोड़ा जीता रहा हूँ थोड़ा मरता रहा हूँ

सारा इल्ज़ाम मढ़ दिया है ज़माने ने सर मेरे
जबकि इस जुर्म में मैं सिर्फ हमसफ़र रहा हूँ 
यूँ आग में जलने का शौक किसे है
हँसी होंठो पर और आहिस्ता सिसकता रहा हूँ    


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